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समेकित पोषक तत्व प्रबंधन अपनाकर मिट्टी की उर्वरता बढ़ाएं

देश की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका का मूल आधार कृषि है। लेकिन खेती योग्य जमीन का उपजाऊपन एवं गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। दरअसल देश में हरित क्रांति के बाद कृषि उपज में तो खूब बढ़ोत्तरी हुई, लेकिन ज्यादा से ज्यादा उपज पाने के लिए जिस तरह रासायनिक उर्वरक और पौधों की सुरक्षा के लिए रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया उसका दुष्परिणाम धीरे-धीरे अब दिखने लगा है। इस वजह से खेतों की उर्वरता में कमी आई है। इसलिए जरूरत है सचेत होने की और खेतों का उपजाऊपन बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाने की।

आपको बता दें कि आज हालत ये हैं कि उतनी ही उपज पाने के लिए अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा केमिकल उर्वरकों की जरूरत पड़ने लगी है जिसके चलते खेती की लागत बढ़ गई है। ज़ाहिर है कि इससे किसानों को मिलने वाले लाभ का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। चिंताजनक बात यह है कि उत्तर भारत में कई जगहों पर जहां की भूमि को एक वक्त में काफी उपजाऊ माना जाता था आज वही जमीन कम उपजाऊ एवं बंजर होती जा रही है।

दिन-प्रतिदिन बढ़ता औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, खेती में रासायनिक फर्टिलाइजर और पेस्टीसाइड का अनियंत्रित इस्तेमाल, अवैज्ञानिक तरीके से प्राक़ृतिक सिंचाई के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, खेतों में जीवाणु और कार्बनिक खादों का कम या बिल्कुल इस्तेमाल ना करना मृदा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली मुख्य वजह है। इन सब वजहों से केवल मृदा का उपजाऊपन औऱ खेती वाली जमीन ही बेकार नहीं हो रही है, बल्कि इसके दुषप्रभाव की वजह से इंसान और जानवरों में कुपोषण की समस्या, पेयजल की गुणवत्ता का कम होना, खाद्य श्रृंखला में घातक और जहरीले तत्वों की मौजूदगी, फ़सल की पैदावार में गिरावट और मृदा-जैव विविधता में धीरे-धीरे कमी जैसे दुष्प्रभाव देखे जा रहे हैं।

शहरों के नजदीक खेती करने वाले किसान आजकल अपने खेतों में कल कारखानों और घरों से निकलने वाले गंदे औऱ प्रदूषित जल का इस्तेमाल करते हैं, साथ ही इंडस्ट्रियल एरिया से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को खेती में पोषक तत्वों की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। जिसमें घातक कैडमियम, लेड, निकिल और क्रोमियम जैसे विषाक्त तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है। ये विषाक्त तत्व पौधों से होते हुए उपज के ज़रिए मानव शरीर में पहुंच कर काफी नुकसान पहुंचाते हैं।

फसलों को पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए जिस तरह रासायनिक फर्टिलाइजर का इस्तेमाल और फसलों को हानिकारक कीट-रोगों और खर-पतवार से बचाने के लिए रासायनिक कीटनाशी और खरपतवारनाशी दवाओं का अंधाधुन्ध इस्तेमाल किया जा रहा है, इसके कारण ज़मीन में रहने वाले असंख्यक लाभदायक सूक्ष्म जीवों के अस्तित्त्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसके अलावा आवश्यकता से अधिक और अव्यवस्थित सिंचाई करने से फसलों के जड़ क्षेत्र में रहने वाले पोषक तत्व ज़मीन की निचली सतह पर चले जाते हैं, जिससे जमीन के उपजाऊपन में कमी आ जाती है। मृदा में मौजूद कार्बनिक पदार्थ अच्छी मृदा के सूचक होते हैं। लेकिन रासायनिक फर्टिलाइजर के ज्यादा इस्तेमाल और जैविक खाद के कम प्रयोग से भी ज़मीन के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। जिससे एक समय की उर्वर जमीन भी अनुपजाऊ जमीनों की श्रेणी में आ गयी है।

क्या है समेकित पोषक तत्व प्रबंधन?

अब बात आती है कि मृदा की गिरती उर्वरता को कैसे बचाया जाय जिससे कि आप लगातार फसलों से अच्छी पैदावार ले सकें, तो इसके लिए सबसे पहले आपको समेकित पोषण प्रबंधन प्रणाली य़ानि Integrated Nutrient Management को अपनाने की जरूरत है। इस प्रणाली में फसलों को पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए प्रकृति में उपलब्ध कार्बनिक, जैविक और रासायनिक उर्वरक स्रोतों का संतुलित इस्तेमाल किया जाता है। इन तीनों पोषक तत्वों के स्रोतों को फ़सलों की ज़रूरत के मुताबिक एक खास अनुपात 1:2:2 के हिसाब से जैविक, कार्बनिक और रासायनिक खाद इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक कार्बनिक खाद पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराने के साथ-साथ मृदा में कार्बन की उपलब्धता को भी बढ़ाता है, जिससे जमीन में रहने वाले लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है जिसकी वजह से हमारी मृदा जीवंत और स्वस्थ रहती है।

हरी खाद और कम्पोस्ट खाद के अलावा प्रकृति में मिलने वाले जीवाणुओं की पहचान कर उनसे कई तरह की मृदा और पर्यावरण को लाभ पहुंचाने वाले उर्वरक तैयार किये गए हैं, जिन्हें जैव उर्वरक यानी बायो फर्टिलाइजर भी कहते हैं। इन जैव उर्वरकों के द्वारा प्रकृति से फसल और पौधों को जरूरी पोषक तत्व मिल जाते हैं साथ ही ये जैव उर्वरक मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता को भी बनाए रखने की क्षमता रखते हैं, दूसरी तरफ ये रासायनिक उर्वरकों से सस्ते और बेहतर भी होते हैं।

यहां ये समझना जरूरी है कि अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग बाय़ोफर्टिलाइजर का इस्तेमाल किया जाता है जैसे दलहनी फसलों में नाइट्रोजन देने के लिए राईजोबियम कल्चर तो खाद्यान्न फसलों में एज़ोटोबैक्टर, एज़ोस्पाइरिलम, एसीटोबैक्टर का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा धान की फसल में नाइट्रोजन देने के लिए नीली हरित शैवाल का इस्तेमाल किया जाता है। फसलों को फॉस्फोरस मिल सके, उसके लिए एसपर्जिलस, पैनिसिलियम, स्यूडोमोनॉस, बैसिलस जैसे जीवाणु खाद का इस्तेमाल किया जाता है, ये जीवाणु जमीन में मौजूद फास्फोरस को घुलनशील बना कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा पोटाश और लौह तत्व के लिए बैस्लिस , फ्रैच्युरिया, एसीटो बैक्टर का इस्तेमाल किया जाता है।

समेकित पोषक तत्व प्रबंधन के पीछे मूल उद्देश्य ये है कि खेत और बाहरी स्रोतों से मिलने वाले कार्बनिक पदार्थों का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो सके और मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए जैविक उर्वरकों पर ज्यादा ध्यान दिया जाय ताकि रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम की जा सके, खेती की लागत में कमी आ सके और किसानों के लिए फसल उत्पादन ज्यादा लाभकारी साबित हो सके।

समेकित कीट नियंत्रण

मृदा को स्वस्थ बनाए रखने के लिए समेकित पोषक तत्व प्रबंधन के बाद आपको समेकित कीट नियंत्रण तरीकों को अपनाना होगा। इसे आईपी एम विधि भी कहते हैं। ये एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें फसलों में लगने वाले कीट रोग और खरपतवारों के नियंत्रण के लिए जैविक औऱ यांत्रिक विधियों का इस्तेमाल होता है ताकि रासायनिक दवाओं के इस्तेमाल से बचा जा सके। इससे मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीव और फसलों के मित्र कीट अपना अस्तित्व बनाए रख सकेंगे।

मृदा को खराब करने में रासायनिक उर्वरकों और रासायनिक दवाओं के अलावा किसानों द्वारा पुरानी सतह आधारित सिंचाई विधि भी एक प्रमुख वजह है, जिसे दूर करने की जरूरत है। इस वजह से पानी का तो नुकसान होता ही है साथ ही मृदा की गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ता है। अगर आप ज्यादा से ज्यादा सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियां जैसे- ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई तकनीक को अपनाएंगे तो मृदा की क्वालिटी में सुधार आता है। फसलों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की जांच जरुरी है क्योंकि पानी के अम्लीय और क्षारीय गुण का प्रभाव मृदा की गुणवत्ता पर पड़ता है। इसलिए फसलों को दिए जाने वाले पानी की जांच जरुर करवायें।

मृदा को खराब करने में रासायनिक उर्वरकों और रासायनिक दवाओं के अलावा किसानों द्वारा पुरानी सतह आधारित सिंचाई विधि भी एक प्रमुख वजह है, जिसे दूर करने की जरूरत है। इस वजह से पानी का तो नुकसान होता ही है साथ ही मृदा की गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ता है। अगर आप ज्यादा से ज्यादा सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियां जैसे- ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई तकनीक को अपनाएंगे तो मृदा की क्वालिटी में सुधार आता है। फसलों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की जांच जरुरी है क्योंकि पानी के अम्लीय और क्षारीय गुण का प्रभाव मृदा की गुणवत्ता पर पड़ता है। इसलिए फसलों को दिए जाने वाले पानी की जांच जरुर करवायें।

किसान इन बातों पर ख़ास ध्यान देकर अपने खेत की मिट्टी को स्वस्थ रख सकते हैं क्योंकि लाभकारी और टिकाऊ खेती के लिए मृदा को स्वस्थ ऱखना जरूरी है जिससे आने वाले समय में भी अपने खेतों से अच्छी पैदावार ले सकें।