धर्म संस्कृति का प्राण है। वहीं संस्कृति धर्म का वाहक है। दोनों अपने-अपने दृष्टिकोण से राष्ट्र के निर्माण और राष्ट्रीयता को संरक्षित करने में सहायक हैं। जहां धर्म अपनी स्वाभाविकता के साथ सामाजिक परिवेश का आधार बनता है, वहीं संस्कृति सामाजिक मूल्यों को कायम रखती है। जहाँ धर्म का स्रोत मनुष्य का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित करता है, वहीं संस्कृति मानवीय संवेदनाओं को सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है। इस प्रकार धर्म समय रहते संस्कृति की रक्षा करता है और संस्कृति धर्म के आधार का उत्थान करती है। धर्म उसका नाम है जो उन्नति की ओर ले जाता है। इतिहास और पुरातत्व इसके साक्षी हैं, संस्कृति के मूल में आध्यात्मिक ज्ञान, धर्म, दर्शन आदि समाहित हैं।