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भारत में क्यों सफल नहीं हो रही पंचायती राज व्यवस्था?

दोस्तों नमस्कार,

जैसा की आप जानते हैं, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव पिपल एसोसिएशन यानि की AIPPA का मकसद है व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में योगदान देना। दोस्तों, महात्मा गांधी से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय तक, इन सभी का मानना था कि जब तक अंतिम व्यक्ति का अभ्युदय नहीं होता, विकास की दौड़ में वो शामिल नहीं होता, राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता है। इसी ध्येय को पूरा करने के लिए महात्मा गांधी ने पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करना ही एक मात्र उपाय बताया था। 1992 में हमारे देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद ने संविधान में 73 और 74वां संशोधन करके पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करने का प्रस्ताव पारित किया। संविधान संशोधन में पंचायती राज संस्थाओं के लिए 11वीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें 29 विषय बनाकर राज्य विधानमंडल और पंचायतों के बीच शक्तियों का बंटवारा करने और योजना बनाने का अधिकार दिया गया। ये 29 विषय इस प्रकार है...

  1. कृषि और कृषि विस्तार
  2. भूमि सुधार, भूमि सुधारों को लागू करना, चकबंदी और भूमि सुरक्षा
  3. लघु सिंचाई, जल व्यवस्था और वाटरशेड(पानी के बहाव) का विकास
  4. पशुपालन, डेयरी और मुर्गी पालन
  5. मछली पालन
  6. सामाजिक वानिकी और फार्म फॉरेस्टरी
  7. लघु वन उत्पादन
  8. लघु उद्योग जिसमें कृषि उत्पादन को प्रोसेस करने का उद्योग भी शामिल है
  9. खादी ग्रामीण और कुटीर उद्योग
  10. ग्रामीण आवास व्यवस्था
  11. पेयजल (पीने का पानी)
  12. ईंधन और पशुचारे की व्यवस्था
  13. सड़कें, पुलिया, पुल, रजवाहे और आने-जाने के अन्य साधन की व्यवस्था करना
  14. ग्रामीण विद्युतीकरण जिसमें बिजली की सप्लाई भी शामिल है
  15. गैर-परंपरागत उर्जा स्रोत
  16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
  17. शिक्षा जिसमें प्राईमरी और माध्यमिक शिक्षा भी शामिल है
  18. पंचायत स्तर की तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा
  19. प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा
  20. पंचायत स्तर पर पुस्तकालय
  21. सांस्कृतिक कार्यक्रम
  22. मंडियां और मेले
  23. स्वास्थ्य और स्वच्छता जिसमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और डिस्पेंसरी भी शामिल है
  24. परिवार कल्याण
  25. महिला और बाल कल्याण
  26. समाज कल्याण जिसमें विकलांगों और मंदबुद्धि व्यक्तियों का कल्याण भी शामिल है
  27. कमज़ोर वर्गों का कल्याण विशेषकर अनुसूचित और जन-जाति के वर्ग के लोगों का कल्याण
  28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  29. सामुदायिक सम्पति (पंचायत की संपत्तियों) की देखभाल और रख-रखाव

दोस्तों, भले ही इन 29 विषयों का अधिकार पंचायतों को दिए जाने के बाद योजना बनाने, क्रियान्यवयन करने और मूल्यांकन करने की शक्ति ग्रामसभा के हाथ में आ गई दिखाई पड़ती हो लेकिन हकीकत में ऐसा केवल कागज़ों में ही हुआ है। पंचायती राज व्यवस्था को अमली जामा क्यों नहीं पहनाया जा सका है इस पर खूब माथा-पच्ची भी की जा चुकी है। पड़ताल करने वालों ने पंचायती राज व्यवस्था की असफलता के लिए सारा दोष पंचायतों के सिर पर ही मढ़ दिया है, लेकिन यकीन मानिए ऐसा नहीं है। यहां पर खेल कुछ और ही हो रहा है, इसे समझने के लिए हमें थोड़ा विस्तार से जाना होगा...

दोस्तों, जब हम कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति की बात करते हैं, तो जरूरी नहीं है कि हम किसी गांव या कस्बे में रहने वाले व्यक्ति की ही बात कर रहे हैं, ये अंतिम व्यक्ति वो भी हो सकता है जो गांव या कस्बे से दूर खेतों के बीच झोपड़ी बनाकर अकेले या अपने परिवार के साथ रह रहा हो और खेतों की रखवाली करने का काम कर रहा हो। उस व्यक्ति को विकास की दौड़ में शामिल करना ही हमारी किसी भी योजना की सफलता का पैमाना या मापदंड हो सकता है। हमारी राजस्व व्यवस्था में इस तरह आबादी से दूर रहने वालों को परिभाषित भी किया गया है। इस तरह आबादी से हटकर रहने वाले लोगों को या कुछ लोगों के समूह को हम ‘मजरा’ कहते हैं, इसके बाद टोला, फिर गांव, फिर पंचायत, फिर उप तहसील, तहसील, ब्लॉक या विकासखंड, फिर ज़िला, फिर कमिश्नरी, फिर राज्य और अंत में राज्यों के समुच्चय को हम देश कहते हैं। और दोस्तों जब हम देश तक पहुंच जाते हैं तो देखते हैं कि देश का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति या नीति निर्धारक प्रधानमंत्री है, देश का ये प्रधानमंत्री जनता के द्वारा चुना हुआ एक जनप्रतिनिधि होता है। फिर हम राज्य की बात करते हैं तो इसका मुखिया मुख्यमंत्री होता है, मुख्यमंत्री भी जनता का प्रतिनिधि होता है। लेकिन जैसे ही हम इसके नीचे के पायदान पर पहुंचते हैं मामला उल्टा हो जाता है। देश और राज्य के उलट ज़िले में मुखिया, कलेक्टर या डीएम हो जाता है, ये कलेक्टर या डीएम जनता का प्रतिनिधि नहीं होता बल्कि ये एक प्रशासनिक अधिकारी होता है जो राज्य के मुख्यमंत्री या मुख्य सचिव को अपनी रिपोर्टिंग करता है। जनप्रतिनिधि की शक्ति के क्रम का टूट जाना पंचायती राज व्यवस्था की असफलता का एक मुख्य कारण है।

दोस्तों, जैसा कि हमने जान लिया है कि संविधान संशोधन के माध्यम से हमारी संसद ने राज्य सरकार की 29 विषयों की शक्तियों को पंचायतों को स्थानांतरित करने की व्यवस्था की है। अब आप समझ सकते हैं कि पंचायतों को शक्ति मिलेगी कैसे। जब राज्य सरकारें अपनी 29 विषयों की शक्तियों पर हस्तक्षेप करना बंद नहीं करेंगी तो पंचायत मजबूत कैसे होगी। अब आप पंचायतों के क्रियान्वयन की व्यवस्था देखिए, राज्य सरकारों ने पंचायतों को शक्ति देने के नाम पर कैसा झुनझुना पकड़ाया है, पंचायतों के लिए भवन, कंप्यूटर और तमाम वो सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं जिसे हम इन्फ्रास्ट्रक्चर कह सकते हैं। यहां तक तो ठीक है, अब पंचायतों की योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए राज्य सरकारों ने पंचायत सचिव से लेकर, शिक्षा मित्र, किसान सलाहकार, ANM, आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और लेखपाल जैसे कार्यकर्ता और पदाधिकारी नियुक्त किए हैं। हैरानी की बात ये है कि ये सभी काम तो पंचायत के लिए करते हैं लेकिन इनकी रिपोर्टिंग प्रशासनिक अधिकारियों के पास ही है, कोई शिक्षा विभाग के अधिकारी को रिपोर्टिंग करता है तो कोई चीफ मेडिकल ऑफिसर को रिपोर्ट करता है। इनमें से कोई भी ठीक से काम न करे या इनके खिलाफ कोई शिकायत हो तो सरपंच या मुखिया इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे में पंचायत को ताकत मिली ही कहां ?

दोस्तों, आपको पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का एक उद्गार याद होगा, उन्होंने डंके की चोट पर ये स्वीकार किया था कि केंद्र की सरकार तमाम योजनाओं के तहत अगर दिल्ली से एक रुपया जारी करती है तो पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक केवल 15 पैसे ही पहुंच पाता है। बीच के लोगों द्वारा किए जाने वाले इस नुकसान की भरपाई के लिए ही पंचायती राज व्यवस्था की दुहाई दी गई, लेकिन जब राज्य सरकारों ने अधिकारों के स्थान पर पंचायतों को गठित करके उन्हें झुनझुना पकड़ा दिया तो पंचायती राज भी उस लोकपाल की तरह हो गया जिसे अन्ना हजारे ने बिना दांत और नाखून का शेर कहा था। दरअसल पंचायतों को उनकी वास्तविक ताकत मिल जाए तो जानते हैं क्या होगा, हमें लगता है सबसे पहले जो होगा वो ये होगा कि सांसद और विधायक का जनता के बीच महत्व कम हो जाएगा। जब स्थानीय स्तर पर टैक्स वसूलने से लेकर लोगों की समस्याओं का समाधान पंचायतों के माध्यम से होने लगेगा तो फिर भला सांसद और विधायकों के दरवाजे पर जाएगा कौन। लोकतंत्र के ये चुने हुए जनप्रतिनिधि न तो अपनी मर्जी से किसी गांव की सड़क बनवा सकेंगे और न ही अपने किसी खास आदमी के घर के सामने सार्वजनिक नलकूप ही लगवा पाएंगे, लेकिन हकीकत तो यही है कि सरकार की किस योजना की गांव, टोला या मजरे के किस व्यक्ति को सबसे ज्यादा आवश्यकता है इसकी जानकारी ना तो प्रधानमंत्री को हो सकती है, ना मुख्यमंत्री को, ना सांसद को हो सकती है, ना विधायक को और ना ही डीएम या किसी और प्रशासनिक अधिकारी को, अगर इसकी एकदम सही जानकारी किसी को हो सकती है तो वो हैं पंचायत के चुने हुए पदाधिकारी। अब आप ही बताइए कि पंक्ति के अंतिम व्यक्ति का उद्धार आखिर कौन कर सकता है, जाहिर है ये काम पंचायत ही कर सकती है। यही वजह है कि जिन्होंने भी राष्ट्रनिर्माण का सपना देखा उन्होंने ही पंचायतों को ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त करने की बात कही है।

दोस्तों, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब ये देखा कि राज्य सरकारों ने पंचायतों को शक्ति देने के नाम पर उन्हें पंगु बना दिया है तो उन्होंने तकनीक का सहारा लिया। टेक्नोलॉजी की मदद से आज दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री को ये आसानी से पता चल जाता है कि किस राज्य के किस क्षेत्र विशेष के किसानों को क्या समस्या है। आज देश के तमाम नागरिकों को आधार कार्ड के माध्यम से केंद्र की योजनाओं से जोड़ दिया गया है, डाटा कलेक्शन की तकनीक ने केंद्र की योजना का पैसा सीधे हितग्राहियों तक पहुंचाने की व्यवस्था कर दी है। ये हो सकता है कि वास्तविक हितग्राहियों को चिन्हित करने में थोड़ी चूक हो सकती है, लेकिन ये चूक पहले के मुकाबले काफी कम हो सकी है। कहने का मतलब ये है कि स्वर्गीय राजीव गांधी ने जो चिंता व्यक्त की थी कि एक रुपये का 15 पैसा हितग्राही तक पहुंचता है तो वो बढ़कर 65 पैसा पहुंचने लगा है, लेकिन अभी भी ये पूरा 100 प्रतिशत पहुंचना और एकदम सही हितग्राही तक पहुंचना बाकी है। दोस्तों यकीन मानिए ये काम सिर्फ और सिर्फ तभी हो सकता है जबकि पंचायतों को पूरी शक्ति से काम करने दिया जाए।

सवाल उठना लाजमी है कि आखिर क्यों राज्य की सरकारें, सांसद और विधायक अपनी शक्तियां पंचायतों को देंगे, उन्हें तो ये लगता है कि ऐसा होने पर उन्हें पूछने वाला ही कोई नहीं रहेगा। दरअसल दोस्तों ये भी एक गलत परंपरा का शिकार होने के कारण ऐसा सोचते हैं, सड़कें बनवाना या नलकूप लगवाने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण काम के लिए सांसद या विधायक चुने जाने की व्यवस्था है, इनके कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी का काम है और वो है कानून बनाना। विधायक राज्य के लिए नीति निर्माता है और सांसद देश के लिए नीतियां तैयार करने के लिए हैं। पंचायतों को ताकत देने से इन दोनों हस्तियों की शान ज़रा भी कम होने वाली नहीं है बल्कि इन्होंने अगर पंचायतों के काम पर निगरानी रखी तो इनके क्षेत्र का इससे बेहतर विकास हो ही नहीं सकता। पंचायत के चुने हुए पदाधिकारियों पर स्थानीय लोगों के विकास का जो दबाव होगा उससे वो कतई नहीं डिग सकेंगे। कल्पना करके देखिए कि क्या पंचायत का चुना हुआ कोई प्रतिनिधि उस स्कूल में कोई अव्यवस्था देख सकता है जहां उसके अपने बच्चे या उसके ही गांव के बच्चे पढ़ाई करते हैं या कोई इस तरह का प्रतिनिधि किसी अस्पताल में अव्यवस्था बर्दाश्त कर सकता है जहां उसके अपने ही परिजनों और अपने ही गांव के लोगों का इलाज़ होना है। यही तो वो स्वर्णिम भारत होगा जिसकी कल्पना महात्मा गांधी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और ऐसी ही अनेक महान हस्तियों ने की थी।