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शिक्षा की चुनौतियां, संभावनाएं और समाधान

जैसा कि आप जानते हैं कि ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव पिपल्स एसोसिएशन यानि कि AIPPA, व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण की अवधारणा पर सतत अग्रसर है। हमारा मानना है कि व्यक्ति और राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षा एक अहम कड़ी है। हम सभी जानते हैं कि सरकार ने सालों बाद एक नई शिक्षा नीति की घोषणा की है। क्या वाकई इस नई शिक्षा नीति के सुनहरे से लगने वाले प्रावधानों को हकीकत में बदला जा सकता है? आइए जानते हैं कि इसकी राह में क्या-क्या रोड़े आ सकते हैं और इससे निपटने का क्या उपाय हो सकता है?

शिक्षा क्या है ?

सरल शब्दों में शिक्षा का मतलब है कि एक पीढ़ी अपने ज्ञान को, अपनी जानकारी को अगली पीढ़ी तक ट्रांसफर करती है। इसका साफ अर्थ ये है कि जिसे हम शिक्षित कर रहे हैं, उसे समाज की उन व्यवस्थाओं से जोड़ रहे हैं जो पहले से स्थापित है। शिक्षित व्यक्ति से ये उम्मीद की जाती है कि वो न केवल इन स्थापित नियमों, व्यवस्थाओं या समाज के मूल्यों की हिफाज़त करे बल्कि आवश्यकता अनुसार इसमें सुधार भी करे ताकि आने वाली पीढ़ी और ज्यादा समाजिक, और ज्यादा समृद्ध हो सके। ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। इस तरह से देखा जाए तो शिक्षा के दो रूप सामने आते हैं। पहला है व्यापक और दूसरा है संकुचित। व्यापक उसे कह सकते हैं जिसमें कोई नवजात मनुषत्व के गुणों का विकास पाता है, उसके ज्ञान और कौशल को बढ़ाकर उसके व्यवहार को कुशल बनाया जाता है। इस व्यापक शिक्षा के लिए वो तमाम माध्यमों का इस्तेमाल करता है इसमें उसके निजी सामाजिक संस्कार, रेडियो, टेलीविजन से लेकर किताबें और पत्र-पत्रिकाएं तक शामिल हो सकती हैं। अब बात करें शिक्षा के संकुचित रूप की तो इसमें स्कूली शिक्षा सबसे पहले सामने आती है। इसमें उसे वो निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है जिसे सरकार ने तैयार किया है, ताकि वो देश का एक अच्छा नागरिक बन सके। स्कूल-कॉलेज की शिक्षा एक सुनियोजित ढांचे में ढालने की कोशिश है। ये ढांचा केवल नागरिक होने के लिए ही नहीं है बल्कि नौकरियों से संबंधित भी होता है। विद्यार्थी को पता होता है कि किस नौकरी के लिए किस तरह की तैयारी करनी है और उस नौकरी के लिए उससे क्या-क्या पूछा जा सकता है। लेकिन अब जबकि पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज में बदल रही है तो हमारे देश में भी दोनों तरह की शिक्षाओं के क्षेत्र का विस्तार होना आवश्यक है। ताकि वो एक शिक्षित नागरिक बनकर पूरी दुनिया की टेक्नोलॉजी का सामना कर सके साथ ही देश की प्रतिबद्धताओं को बनाए रखकर अपनी जड़ों से जुड़ा भी रहे।

शिक्षा कैसी होनी चाहिए?

गांधी जी ने “यंग इण्डिया” में लिखा है “विद्यार्थी को राष्ट्र का निर्माता बनना है” हमारी पढ़ाई ऐसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्र निर्माण हो सके, बच्चे आत्मनिर्भर बन सकें, बच्चे निम्न विचारों का त्याग कर सकें। जाति, धर्म, वर्ण, प्रांत, वर्ग, जैसी संकीर्णताओं से निकल सकें। दरअसल महात्मा गांधी ने स्वर्णिम भारत का सपना पंचायतों के माध्यम से ही देखा है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण तक की पूरी प्रक्रिया के केंद्र में पंचायत ही है। ऐसे में शिक्षा का विकास भी पंचायत के माध्यम से ही होना तय है। जिसके अनुसार पूरी शिक्षा स्वावलंबी होनी चाहिए। यानि, आखिर में पूँजी को छोड़कर अपना सारा खर्च उसे खुद निकालना चाहिए। इसमें प्रत्येक विद्यार्थी को अपने हाथों से कोई न कोई उद्योग-धंधा आखिरी दर्जे तक करना होगा। सारी तालीम विद्यार्थियों की प्रांतीय भाषा द्वारा दी जानी चाहिए। इसमें सांप्रदायिक और धार्मिक शिक्षा के लिए कोई जगह नहीं होगी। लेकिन बुनियादी नैतिक तालीम के लिए काफी गुंजाइश होगी। ये तालीम, फिर उसे बच्चे लें या बड़े, स्त्रियां लें या पुरुष, हर घर में पहुंचेगी। चूंकि इस तालीम को पाने वाले लाखों-करोड़ों विद्यार्थी अपने-आपको हिन्दुस्तान का नागरिक समझेंगे, इसलिए उन्हें एक अंतरप्रांतीय भाषा सीखनी होगी। सारे देश की ये एक भाषा देवनागरी लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी ही हो सकती है। इसलिए विद्यार्थियों को इसकी लिपी अच्छी तरह से सीखनी होगी। हैरानी की बात है कि भारत की पहली शिक्षा नीति से लेकर अब तक जो भी शिक्षा नीतियां बनीं हैं सबमें इन्हीं तथ्यों को घुमा-फिराकर प्रस्तुत किया गया है। फिर चाहे उसे रोज़गार परक शिक्षा कहें या ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाली शिक्षा। बावजूद इसके इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है।

प्राथमिक शिक्षा पर ज़ोर

कहते हैं कि किसी नई चीज को सीखना अपने आप में एक सुखद अहसास होता है, और बच्चे तो इसके लिए ज्यादा ही उत्सुक होते हैं। फिर सवाल ये है कि स्कूल की पढ़ाई बच्चों के लिए इतनी तकलीफदेह क्यों होती है? दरअसल हमें स्कूलों का निर्माण इस तरह से करना चाहिए, जहां हर बच्चा जाना चाहे। इसके लिए हमें बच्चों से पहले बड़ों को शिक्षित करने की जरूरत है। बच्चे कुदरती तौर पर खुशमिजाज होते हैं और वे आबादी का ऐसा हिस्सा हैं, जिनके साथ काम करना सबसे आसान होता है। तो दूसरा सवाल ये है कि पढ़ाने के लिए माहौल को खुशनुमा बनाना एक मुश्किल काम क्यों हो जाता है? आज हमारे पास ऐसे कई वैज्ञानिक और चिकित्सकीय प्रमाण मौजदू हैं, जिनसे साबित होता है कि अगर आप एक खुशनुमा माहौल में होते हैं तो आपका शरीर व दिमाग सर्वश्रेष्ठ तरीके से काम करता है। अगर आप एक भी पल बिना उत्तेजना, चिड़चिड़ाहट, चिंता, बेचैनी या गुस्से के रहते हैं, अगर आप सहज रूप से खुश रहते हैं, तो कहा जाता है कि बुद्धि का इस्तेमाल करने की आपकी क्षमता एक ही दिन में सौ फीसदी बढ़ सकती है। इस नई शिक्षा नीति में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के लिए बच्चों की उम्र को 6 वर्ष के स्थान पर 3 वर्ष तो कर दिया है लेकिन खुशनुमा माहौल बनाने को लेकर इस नीति में नई कवायद किए जाने की कोई बात दिखाई नहीं पड़ती है। सबसे महत्वपूर्ण ये है कि शिक्षा दे कौन रहा है? प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करना ही पूरी शिक्षा व्यवस्था की जड़ को मजबूत करना है। इसकी भी कोई ठोस पहल न तो दिखाई देती है और ना ही सरकार इसके लिए कोई योजना बनाती हुई दिखाई पड़ती है।

योग्य शिक्षकों की आवश्यकता

पूरे उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों से ये खबर आम है कि कक्षा पांचवीं का बच्चा तीसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ सकता। चौथी कक्षा के बच्चे को जोड़ना-घटाना नहीं आता। सवाल ये है कि क्या नई शिक्षा नीति में ऐसी कोई व्यवस्था दिखाई पड़ती है कि इसके लागू होने से ऐसी रिपोर्टें आनी बंद हो जाएंगी। दरअसल सरकारें जो नीतियां बनाती हैं उसमें शिक्षक के विकास को एकदम से दरकिनार कर दिया जाता है। शिक्षक का विकास होना बेहद जरूरी है। सदगुरु कहते हैं कि शिक्षक के विकास का मतलब ये कतई नहीं है कि उन्हें शिक्षण को लेकर किसी तरह की तरकीब या युक्तियां सीखने की जरूरत है। कोई भी शिक्षक एक खिला हुआ इंसान होना चाहिए, साथ ही वो अपेक्षाकृत अधिक खुशमिजाज, प्रेम करने वाला, करुणामय और चेतन भी होना चाहिए। ये एक ऐसी चीज है, जिस पर हर इंसान को खुद ही काम करना पड़ता है। सदगुरु का ये वक्तव्य गलत नहीं है। हममें से कोई भी जो अपनी पूरी पढ़ाई खत्म कर चुका है, उससे पूछा जाए कि अब तक उसे कितने शिक्षकों ने पढ़ाया है और उसे कितने शिक्षकों की याद है तो यकीन मानिए हममें से कोई भी तीन या चार से ज्यादा शिक्षकों का नाम नहीं ले पाएगा। जानते हैं ऐसा क्यों है? क्योंकि केवल उन्हीं शिक्षकों की हमें याद रह जाती है जिनके पढ़ाने का तरीका ऐसा होता था जो हमारे मन-मस्तिष्क को मंत्रमुग्ध कर देता था। सवाल ये है कि फिर शिक्षकों के लिए योग्यता और उनके चुने जाने का मापदंड क्या होना चाहिए। आपको इसे स्वीकार करना ही होगा कि जब अति उच्चशिक्षित व्यक्ति बच्चों को पढ़ाता है तब ही बच्चे का पूर्ण विकास हो पाता है। क्या हमारी सरकार की शिक्षा नीति में इस तरह का कोई प्रावधान है? अगर नहीं, तो जान लीजिए कि बाकी के सारे प्रावधान धरे के धरे रह जाने वाले हैं।

कौशल विकास

नई शिक्षा नीति में कौशल विकास पर जोर देने की बात तो कही गई है। लेकिन इसके लिए कोई पैमाना या मापदंड तय किया गया है ऐसा दिखाई नहीं देता। आखिर कौन सा बच्चा किस कौशल में माहिर हो सकता है ये पता कैसे चलेगा? कई बार बच्चों की उम्र बढ़ने के साथ उनकी अभिरुचियां बदलते हुए भी देखी गई हैं। नई शिक्षा नीति के आलोचकों का कहना है कि वोकेशनल कोर्स के नाम पर गरीब और निचले तबके के लोगों को मुख्यधारा से अलग करने की कोशिश दिखाई पड़ती है। उनका मानना है कि स्किल इंडिया मिशन के बहाने ऐसे लोगों को कम दिहाड़ी पर मजदूरी करने के लिए धकेल दिया जाएगा। बच्चे अगर 12वीं पास भी कर लेगें तो डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाएंगे। वहीं इसके पक्षकार कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ है कि शिक्षा को क्लास रूम से बाहर ले जाने की कोशिश की गई है। इसकी वजह से लोगों में स्वरोजगार की भावना विकसित होगी और अपने काम के प्रति सम्मान बढ़ेगा। ये बात तो एकदम ठीक भी लगती है क्योंकि आज हम अधिकतर बच्चों को शिक्षा के उपरांत अमर्यादित और अहंकारी बनते देखते हैं। अधिकतर लोगों का भी यही मानना है कि जिसने जितनी डिग्रियां प्राप्त कर रखी हैं वो उतना ही महान है। इस बाहरी आडंबर के चलते हम अपनी सभ्यता को भूलकर पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव में स्वयं को उद्दंड स्वभाव वाले बनाने के रास्ते पर चल पड़े हैं। आज बच्चे तर्कहीन मशीन, रट्टू तोते बनते जा रहे हैं इस तरह वे अपने बौद्धिक स्तर का विकास नहीं कर पाते और समाज में भी पिछड़ जाते हैं। ऐसे में कौशल विकास को अमली जामा पहनाना आसान नहीं होगा।

समाधान की पहल

दोस्तों, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव पिपल्स एसोसिएशन महात्मा गांधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसी महान हस्तियों के देखे सपने से एकदम एतबार रखता है। हमारा भी यही मानना है कि देश का संपूर्ण विकास पंचायत राज के विकास के माध्यम से ही हो सकता है और शिक्षा व्यवस्था भी इसका एक अभिन्न अंग है। केंद्र और राज्य की सरकारों से हमारी गुजारिश है कि शिक्षा नीति को अगर लागू करना है तो इसे पंचायतों के माध्यम से ही लागू किया जा सकता है। पंचायतों को खासकर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी जानी चाहिए। तभी तो मातृ भाषा और स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा देने का सपना पूरा हो सकेगा। इतना ही नहीं, पंचायत प्रतिनिधि स्कूल में बच्चों की सुविधाओं से संबंधित तमाम व्यवस्थाओं की निगरानी स्वंय करेंगे। रही बात अति उच्च शिक्षितों को प्राथमिक शिक्षक बनाने की तो इसकी पहल UPSC को करनी होगी। आकर्षक वेतनमान के साथ ऐसे लोगों का चयन करना होगा जिनकी मौजूदगी से ही बच्चे अभिभूत रहें। इसके लिए IAS, IPS और IFS की परीक्षा में ही दर्जा निर्धारित करना होगा। निश्चित रूप से अब तक जो मेधावी विद्यार्थी UPSC में चूक जाते थे उनके लिए एक रास्ता भी खुलेगा। जिस तरह वर्तमान नई शिक्षा नीति में 3 साल के बच्चों को स्कूल आमंत्रित किया जा रहा है ताकि पहली कक्षा तक उसका ज्यादा मानसिक विकास हो सके इसी तरह प्राथमिक शिक्षा में इन उपायों को अपनाने से उच्च शिक्षा के लिए प्रस्तुत होने वाले विद्यार्थी आज के मुकाबले ज्यादा तैयार मिलेंगे। कौशल विकास और स्थानीय स्तर पर रोज़गार के साधन मुहैया कराने या पैदा करने का काम जितनी कुशलता से पंचायत या ग्राम सभाएं कर सकती हैं उतना और कोई नहीं कर सकता। कृषि, पशुपालन और लघु या कुटीर उद्योगों को आधुनिक तरीके से ग्रामीण अंचलों में ही स्थापित करना होगा। पर्यावरण संरक्षण और शहरों से आबादी का बोझ कम करने में भी ये सार्थक होंगे।