कार्य शिक्षा
दोस्तों, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव पिपल्स एसोसिएशन यानि कि AIPPA व्यक्तित्व विकास के साथ राष्ट्र के विकास की अवधारणा पर आगे बढ़ रहा है। हम सब जानते हैं कि बिना शिक्षा के व्यक्तित्व विकास नहीं हो सकता, लेकिन शिक्षा कैसी हो कि व्यक्तित्व के साथ-साथ राष्ट्र का भी विकास हो सके ? केवल किताबी ज्ञान से व्यक्तित्व का विकास भले ही हो जाता हो लेकिन राष्ट्र के विकास के लिए इस ज्ञान का व्यवहारिक उपयोग अनिवार्य है। ऐसा नहीं होने पर किसी व्यक्ति का सिर्फ शिक्षित होना राष्ट्र निर्माण में कोई योगदान नहीं दे सकता। शिक्षा के इन दो पहलुओं के बीच सामंजस्य स्थापित हो इसके लिए कार्य शिक्षा की अवधारणा सामने आती है। आइए जानते हैं कि कार्य शिक्षा से हमारा अभिप्राय क्या है और ये राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक क्यों है।
दोस्तों, कार्य शिक्षा (Work Study या Cooperative education) दरअसल शिक्षा का एक ऐसा आयाम है जिसमें स्कूली बच्चों को कक्षा में किताबी शिक्षा देने के साथ-साथ समाज के उपयोगी कार्यों की व्यावहारिक शिक्षा भी दी जाती है। कार्य शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण और सार्थक शारीरिक श्रम माना गया है जो कि शिक्षण का अभिन्न और अंतरंग हिस्सा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मेरा विश्वास है कि वास्तविक शिक्षा शरीर के विभिन्न अंगो जैसे- हाथ, पैर, कान, आंख और नाक का उपयोग करके ही प्राप्त की जा सकती है। दूसरे शब्दों में इंद्रियों का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए सर्वोत्तम तथा उचित तरीका है’। हम देखते हैं कि कुछ गतिविधियों में हमारा मस्तिष्क सक्रिय होता है और कुछ गतिविधियों में हमारे शरीर के बाहरी अंग सक्रिय होते हैं, लेकिन हकीकत में जब हम शरीर के बाहरी अंगों के सहारे कोई कार्य कर रहे होते हैं तो उस वक्त भी हमारा मस्तिष्क सक्रिय रहता है। तमाम तरह के वैज्ञानिक अविष्कारों के पीछे भी यही वजह है। अविष्कारों को ध्यान से देखा जाए तो हम पाते हैं कि इसके लिए मानसिक श्रम से पहले शारीरिक श्रम आता है। आखिर शारीरिक श्रम को ही सुविधाजनक बनाने के लिए मस्तिष्क श्रम करता है और अविष्कार सामने आते हैं।
दोस्तों, शारीरिक श्रम का सीधा संबंध हमारी आजीविका से होता है। आजीविका के लिए किए जाने वाले कार्य केवल भौतिक समृद्धि ही नहीं देते बल्कि आंतरिक खुशी का भी अहसास कराते हैं। कोई कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है, उन्हें रंगता है, सजाता है, उसे बेचकर पैसे कमाता है, दरअसल वो केवल पैसे ही नहीं कमा रहा है बल्कि अपने काम से खुश भी है अन्यथा वो मिट्टी के बर्तनों को ठीक से सजा ही नहीं पाएगा। इसी तरह अगर कोई किसान अच्छी फसल उगा रहा है तो उससे वो केवल आर्थिक कमाई ही नहीं कर रहा है बल्कि आंतरिक संतोष का अहसास भी कर रहा होता है अन्यथा वो अच्छी तरह से खेती कर ही नहीं सकता। कार्य शिक्षा शारीरिक श्रम के माध्यम से सुख और आनंद के रास्ते खोलता है और इससे उत्पन्न होने वाला संतोष ही लोगों के जीवन का अनिवार्य अंग है। इसलिए बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ ऐसी शिक्षा भी देनी होगी जिससे स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद वो समाज में उपयोगी साबित हो सके और स्वयं को संतोषजनक जीवन पद्धति में ढाल सके।
दोस्तों, अंग्रेजी शासन से आजाद होने से पहले से ही देश में इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि शिक्षा के लिए एक ऐसी राष्ट्रीय नीति बनाई जाए जिसके तहत शिक्षित व्यक्ति राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने में मददगार साबित हो, जो समाज की ज़रूरतों को बुनियादी स्तर तक जाकर समझ सके और साहित्य, विज्ञान, कला या तकनीक में विकास की संभावनाएं खोज निकाले।
दोस्तों, प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था में कार्य शिक्षा की अवधारणा साफ दृष्टिगोचर होती है। गुरुकुल व्यवस्था में विद्यार्थी शिक्षक के साथ ही रहता था और किताबी ज्ञान के साथ-साथ श्रम के माध्यम से व्यवहारिक ज्ञान भी हासिल करता था, लेकिन जब से औपचारिक शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया गया कार्य शिक्षा पिछड़ती चली गई। सन 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल चार्ल्स वुड ने शिक्षा में इस कमी की ओर इशारा किया था। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय भाषाओं को शुरू करने का सुझाव भी दिया था। महात्मा गांधी ने भी 1937 में वर्धा नीति के नाम से मशहूर शिक्षा नीति में सबसे ज्यादा महत्व हस्त उत्पादन कार्यों को दिया था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में उत्पादक कार्य की अवधारणा को स्वीकार किया गया, इसके तहत मुख्य रूप से 6 क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई। स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान, भोजन और पोषण, आवास, कपड़े, संस्कृति और मनोरंजन तथा सामुदायिक कार्य और समाज सेवा।
दोस्तों, अब सवाल ये है कि इसे बच्चों पर लागू कैसे किया जाए। एक शोध में इसके लिए कुछ प्रक्रियात्मक प्रस्ताव तो मिलते हैं, जैसे घर से स्कूल आते-जाते अपने आसपास के वातावरण को ऑब्जर्व करना, बगीचे या खेत में फसल बोने से लेकर फसल पकने और कटने तक का निरीक्षण करना, पोस्ट ऑफिस, बैंक या अस्पताल की गतिविधियों का अवलोकन करना, संस्कृति या धार्मिक गतिविधियों पर बारीक नज़र रखना। कुल मिलाकर ऐसे कार्यों में संलिप्त होना जिससे बच्चों के बालमन में जिज्ञासाएं उत्पन्न हो सकें, इसके साथ ही तमाम तरह की तकनीकों से परिचित होना और तमाम तरह की निर्माण सामग्रियों की जानकारी जुटाना भी इसमें शामिल किया जाए। इस प्रक्रिया का पालन करते हुए प्रयोगात्मक तरीके से व्यवहारिक ज्ञान भी हासिल किया जा सकता है। ये सारे काम डेली डायरी लिखने से शुरू होकर शिक्षकों की निगरानी में विद्यार्थियों को कार्यानुभव कक्षा के माध्यम से कराया जा सकता है। इसके लिए विद्यार्थियों का समूह बनाना, उनके काम संपन्न करने के लिए समय का आवंटन करना, प्रयोगात्मक कार्य सीखने के लिए स्थान तय करना जो कि वास्तविक कार्य स्थल पर ही हो, मतलब अगर कोई निर्माण कार्य की प्रयोगात्मक कक्षा है तो वो स्कूल स्थल के सबसे नजदीक चल रहे निर्माण स्थल पर ही होनी चाहिए। इसमें स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान, भोजन और पोषण, आवास, कपड़े, संस्कृति और मनोरंजन तथा सामुदायिक कार्य और समाज सेवा जैसे तमाम विषयों को समाहित किया जा सकता है जिसका कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। इन सब कार्यों के लिए आवश्यक दूसरे नियम विद्यालय की ओर से स्वयं तैयार किए जा सकते हैं।
दोस्तों, कार्य शिक्षा के लिए वर्तमान निजी स्कूल तो बच्चों और अभिभावकों पर ही आवश्यक सामग्री खरीदने की जिम्मेदारी डाल देते हैं, लेकिन जब इसे सरकारी स्कूलों में व्यापक स्तर पर लागू करने की बात होती है तो ऐसा करना संभव नहीं दिखता। ऐसे में इस दायित्व को तीन स्तरों पर बांटा जा सकता है, जैसे जो बच्चे बाजार से आवश्यक सामग्री खरीद सकते हैं वो स्वयं खरीदें, बाकी बच्चों के लिए स्कूल स्तर से इसकी व्यवस्था की जाए, जहां स्कूल भी इसके लिए बजट का प्रावधान नहीं कर पाता है वहां जन सहयोग से इसे पूरा किया जाए, जन सहयोग का प्रयास निश्चित रूप से स्कूल के प्रधानाचार्य और अन्य शिक्षक मिलकर कर सकते हैं। वास्तव में कार्य शिक्षा की कोई भी गतिविधि अब तक तो केवल सुझावात्मक है निर्धारित नहीं है, इसे निर्धारित होना भी नहीं चाहिए अन्यथा इसे लागू नहीं करने के सैकड़ों बहाने उपस्थित हो जाएंगे।
दोस्तों, हम सभी ये जानते हैं कि बच्चों में किसी भी कार्य को करने के लिए उत्साह की कोई कमी नहीं होती है, और वो खोजी प्रवृति के भी होते हैं, अपने परिवेश के बारे में जानने की उनमें पर्याप्त जिज्ञासा भी होती है। कार्य शिक्षा के लिए बच्चों के ये गुण हमें ईश्वर प्रदत्त हासिल है, बस हमें उन्हें ऐसा माहौल ही तो देना है ताकि आगे चलकर वो ऐसे नागरिक बन सकें जिसकी कल्पना गांधी जी ने की है और जो वर्तमान भारत की सबसे ज्यादा ज़रूरत है।