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ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और पंचायतों के संवैधानिक अधिकार - सीरीज-2

ग्राम पंचायत स्थानीय स्वशासन की एक संवैधानिक इकाई है। ग्राम पंचायत हेतु ग्राम सभा में से लोग उम्मीदवार होते हैं। और इन उम्मीदवारों को ग्राम सभा के लोग अपने मत के द्वारा चुनने का काम करते हैं। ग्राम पंचायत का एक निश्चित कार्यकाल होता है। जबकि ग्राम सभा 18 साल के व्यक्तियों का एक समूह है जिसको मत देने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त होता है। मतदाता सूची में नाम शामिल होने के बाद एक व्यक्ति आजीवन ग्राम सभा का सदस्य रहता है। ग्राम सभा के परामर्श से ग्राम पंचायत के नेतृत्व में गाँव के विकास का कार्य होता है। 73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसके तहत पंचायतों को शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, जल-प्रबंधन, गरीबी जैसे 29 विषय की सूची की व्यवस्था की गई। अर्थात पंचायतों को इन विषयों के माध्यम से ग्रामीण जीवन से संबन्धित हर पहलू पर कार्य करने के लिए स्वच्छंदता प्रदान की गई। इस संविधान संशोधन में गाँव स्तर पर नियोजन एवं विकास समिति, निर्माण कार्य समिति, शिक्षा समिति, प्रशासनिक समिति, स्वास्थ्य एवं कल्याण समिति, और जल-प्रबंधन समिति जैसी 6 ग्राम पंचायत की समितियां और उनके कार्य का विवरण भी दिया गया है। इसके अलावा ये संशोधन आवश्यकता के अनुसार अन्य समितियों के गठन के लिए भी पंचायत को स्वायतता प्रदान करता है। ये संशोधन महिला भागीदारी के साथ सामाजिक न्याय की पहुँच कमजोर समूहों तक पहुंचाने के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण की व्यवस्था उपलब्ध कराता है। इस संशोधन के तहत पंचायतों को समावेशी बनाने के लिए ग्राम सभा के साथ साल में कम से कम दो खुली बैठक की व्यवस्था की गई है। इससे स्पष्ट है स्थानीय स्वशासन की इकाई में ग्राम सभा की अहम भूमिका है। लेकिन इसके बारे में ग्राम सभा के लगभग सभी व्यक्तियों को पता नहीं है। जिनको पता है उनकी उदासीनता समस्या को ज्यादा जटिल बना रही है। एक तरफ 73 वां संविधान संशोधन पंचायतों को अधिकार देकर उनकी स्वतंत्रता को बल प्रदान करता है और दुसरी तरफ खुली बैठकों और विभिन्न समितियों के माध्यम से पंचायत को समावेशी बनाने पर भी ज़ोर देती है। लेकिन पंचायत के काम करने का अपारदर्शी तरीका इस राह का सबसे बड़ा बाधक बन रहा है। केंद्र और राज्य सरकार गांव का कायाकल्प करने के लिए हर साल ग्राम पंचायतों को लाखों-करोड़ों रुपये देते हैं। इन पैसों से शौचालय, नाली-खडंजा, पानी, साफ सफाई के काम होने चाहिए। गाँव में निर्मित घरों का पानी सड़क पर न बहे, और गांव में सिंचाई की सुविधा हो, ये भी पंचायत का काम है। आज ग्राम पंचायत और ग्राम सभा में सही ताल-मेल न होने के कारण उपर्युक्त उद्देश्य संभव नहीं दिख रहे हैं।भारत की पंचायतीराज व्यवस्था प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का बेहतर स्थान है। ग्राम सभा, ग्राम पंचायत, और सरकारी संस्थान आपसी चर्चा के माध्यम से कैसे गाँव के विकास की समुचित योजना बनाते हैं, इसे पंचायतीराज व्यवस्था के माध्यम से समझा जा सकता है। समाज के कमजोर तपके जैसे महिला, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति, अल्प-संख्यक, तथा दलित व पिछड़ों के लिए सामाजिक न्याय कैसे सुनिश्चित किया जाता है? इसे हम गाँव के स्तर पर बखूबी देख सकते हैं।

नौकरशाही और जन-प्रतिनिधि के गठजोड़ से विफल होता ग्राम स्वशासन-

लेकिन जन-प्रतिनिधियों और नौकरशाहों के गठजोड़ के कारण इसका उजागर होना असंभव सा प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार भारत की लाखों पंचायतों में समाज के कमजोर लोगों की आवाज और उपस्थिति हमें नहीं दिखती है। भले ही 14वें वित्त, मनरेगा और स्वच्छ भारत मिशन के माध्यम से एक पंचायत को प्रतिवर्ष औसतन 20 लाख से 30 लाख रुपए मिलते हैं। पर इस धन-राशि का बहुत बड़ा हिस्सा कमिसनबाजी की भेट चढ़ जाता है। इन्हीं पैसों से गाँव के लोगों के लिए पानी, उनके घर के सामने की नाली, गाँव की सड़क, शौचालय, स्कूल का प्रबंधन, साफ-सफाई और तालाब जैसे विकास के कार्य होते हैं। इसलिए ग्राम सभा को ये आंकड़ा जानना बहुत जरूरी है। पंचायती राज संस्थाओं ने 30 वर्षों की अपनी यात्रा में कुछ सफलता भी पाई है और भारी विफलता भी झेली है जहाँ पंचायती राज संस्थाएं ज़मीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में सफल रही हैं वहीं बेहतर प्रशासन प्रदान करने के मामले में वे विफल रही हैं। इस प्रगति के बाद भी पंचायती राज व्यवस्था अभी कई मामलो में कमजोर है। पर्याप्त धन की कमी पंचायतों के लिये समस्या बनी हुई है। 73वें संविधान संशोधन ने केवल स्थानीय स्वशासी निकायों के गठन को अनिवार्य बनाया जबकि उनकी शक्तियों, कार्यो व वित्तपोषण का उत्तरदायित्व राज्य विधानमंडलों को सौंप दिया दिया, जिसके कारण पंचायती राज संस्थाएं कई मामलों में विफल रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल जैसे मूलभूत आवश्यकताओं के हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं बनाया गया। इसके बजाय संशोधन ने उन कार्यों को सूचीबद्ध किया जो हस्तांतरित किये जा सकते थे। और कार्यों के हस्तांतरण के उत्तरदायित्व को राज्य विधानमंडल पर छोड़ दिया। पिछले 30 सालों में गांमपंचायतो और कार्यों का हस्तांतरण बहुत कम हुआ है। संशोधन की सबसे प्रमुख विफलता पंचायत राज संस्थाओं के लिये वित्त की कमी पर विचार नहीं करना है। स्थानीय सरकारें या तो स्थानीय करों के माध्यम से अपना राजस्व बढ़ा सकती हैं। लेकिन गांम पंचायते नही। क्योकि पंचायती राज संस्थाओं के दायरे में आने वाले विषयों पर कर लगाने की शक्ति को भी राज्य विधायिका द्वारा अधिकृत किया जाता है जहाँ राज्य सरकारें अपने राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत पंचायती राज संस्थाओं को सौंपती हैं। वित्त आयोगों ने प्रत्येक स्तर पर धन के अधिकाधिक हस्तांतरण का समर्थन किया है, लेकिन राज्यों द्वारा धन के हस्तांतरण के संदर्भ में बहुत कम कार्रवाई की गई है।

आरक्षण के माध्यम से SC/ST को व्यवस्था में जोड़ने की कोशिश-

पंचायती राज्य संस्थाएं अत्यंत बुनियादी स्थानीय प्रशासनिक जरुरतो की पूर्ति में भी असमर्थ होती हैं। पंचायती राज्य संस्थाएं संरचनात्मक कमियों से भी ग्रस्त हैं। दूसरी तरफ उनके पास सचिव स्तर का समर्थन और निचले स्तर के तकनीकी ज्ञान का अभाव है हालांकि महिलाओं और SC/ST समुदाय को 73वें संशोधन द्वारा अनिवार्य आरक्षण के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है लेकिन महिलाओं और SC/ST प्रतिनिधियों के मामले में क्रमशः प्रधान-पति और प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व की उपस्थिति जैसी समस्याएँ भी देखने को मिलती है। गांधी अपनी ग्राम स्वराज नाम की पुस्तक में ग्राम पंचायत, ग्राम विद्यालय, और ग्राम सहकारी समिति के रूप में तीन संस्थानों को चिन्हित करते हैं। जिनके माध्यम से लोग गाँव की सामाजिक, आर्थिक और राज-नैतिक पहलू को सुलझाते हैं और ग्राम विद्यालय के माध्यम से एक श्रेष्ठ नागरिक समाज का निर्माण होता है। गांधी सरकारी मिशीनरी की उदासीनता को ध्यान में रखते हुए गैर-सरकारी नागरिक संस्थानों की महत्ता पर बल देते हैं। ताकि इस तंत्र को निरंकुश होने से बचाया जा सके। इसी कड़ी में उन्होंने गाँव में ग्राम सभा की परिकल्पना की थी, जिसका दायित्व ग्राम पंचायत के नियंत्रण का होता है। इसको आगे बढ़ाते हुए लोकनायक जय प्रकाश नारायण आपात काल के दौरान सत्ता की निरंकुशता को नियंत्रित करने के लिए, देश के गैर-सरकारी नागरिक संस्थानों का एक समूह (असोशिएशन ऑफ वोलंटरी ऑर्गनाइजेशन फॉर रूरल डेवलपमेंट) बनाया और ग्रामीण विकास के साथ लोकतंत्र की बेहतरी में अपना श्रेष्ठ योगदान दिया। लेकिन देश में ऐसे संकल्पशील और कर्तव्य-निष्ठ नेतृत्व के अभाव में ऐसा होना दूर-दूर तक संभव नहीं दिख रहा है। और पंचायत के संदर्भ में ग्राम सभा की कम जागरूकता के कारण, हम पंचायत के माध्यम से गाँव के बेहतरी की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। इसलिए आज देश के लगभग हर पंचायत में एक सशक्त ग्राम सभा की जरूरत है। जिसको आईपा ने अपने मंच के माध्यम से, गाँव के लोगों कि आवाज देने का मुहिम बनाया है। हमारा लक्ष्य है कि पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती मिले और भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना जिसमें प्रत्येक नागरिकों का लोकतंत्र में भागीदारी पूरा हो सके।