अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर बसा है कर्णप्रयाग, पिंडर नदी जिसे कर्ण गंगा के नाम से भी जाना जाता है. कुमाऊं के बागेश्वर स्थित पिंडारी ग्लेशियर से निकलती है जो 3820 मीटर और 12,530 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. महाभारत के महान योद्धा और दानवीर कर्ण के नाम पर कर्णप्रयाग का नाम पड़ा है. पौराणिक कथाओं के अनुसार कर्ण ने उमा देवी की शरण में रहकर यहां भगवान सूर्य की तपस्या की जिसके बाद उन्हें अभेद्य कवच, कुंडल और अक्षय धनुष प्रदान किया था. वहीं एक मान्यता ये भी है कि माता सती शिव के अपमान के बाद अग्निकुंड में कूद गयी थी तो उन्होंने हिमालय की पुत्री के रूप में अपना दूसरा जन्म लिया. उनका नाम उमा देवी था और उन्होंने शिव को फिर से पाने के लिये यहां कठिन तपस्या की थी. यहां पर मां उमा का प्राचीन मंदिर भी है. महान कवि कालिदास ने मेघदूत और अभिज्ञान शांकुतलम में भी इस स्थान का जिक्र किया है. स्वामी विवेकानंद जब अपने अनुयायियों के साथ हिमालय की यात्रा पर निकले थे तो उन्होंने 18 दिन यहां रुककर साधना की थी.
रुद्रप्रयाग - बद्रीनाथ के चरणों से होकर आने वाली अलकनंदा और केदारनाथ के दर्शनों से अभिभूत मंदाकिनी नदी का संगम स्थल है.मंदाकिनी नदी केदारनाथ के चाराबाड़ी हिमनद से निकलती है. वहीं केदारनाथ मार्ग पर रुद्रप्रयाग और गौरीकुण्ड के मध्य स्थित सोनप्रयाग समुद्र तल से 1829 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यह वह स्थान है जहां पर बासुकी और मन्दाकिनी नदियों का संगम होता है. वासुकी ताल केदारनाथ धाम से समुद्र तल से 14,200 फीट की शानदार ऊंचाई पर स्थित एक उच्च हिमनद झील है.पौराणिक मान्यता के अनुसार यह झील बहुत पवित्र माना जाता है क्योंकि रक्षा बंधन त्यौहार के अवसर पर भगवान विष्णु इस झील में स्नान के लिए उतरे थे. ऐसा कहा जाता है कि सोनप्रयाग के जल का स्पर्श करने का मतलब बैकुण्ठ धाम की प्रथम सीढ़ी पार कर लेना है.वहीं सोनप्रयाग से 4 किलोमीटर दूर है गौरीकुण्ड, मान्यता है की मॉं गौरी इसी कुंड में स्नान करके तपस्या किया करती थीं.वहीं यहां से 14 किलोमीटर दूर स्थित त्रियुगीनारायण गांव में भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था.चलिए आगे बढ़ते हैं मंदाकिनी नदी अपने वेग से साथ आगे रुद्रप्रयाग की तरफ बढ़ती हैं ,जहां अलकनंदा और रुद्रप्रयाग का संगम होता है. इस छोटे से शहर को प्राकृतिक और धार्मिक दोनों महत्व के लिये जाना जाता है. रुद्र भगवान शिव का एक नाम है और उनके इस नाम पर ही रुद्रप्रयाग को अपना यह नाम मिला है,कहा जाता है कि नारद को अपने वीणा वादन पर बहुत घमंड हो गया था. इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने नारद के घमंड को चकनाचूर करने के लिए नारद के पास गए और उनसे कहा कि भगवान शिव और पार्वती आपके वीणा वादन से बहुत प्रभावित हैं.ये सुनकर नारद जी तुरंत ही कैलाश पर्वत की ओर निकल पड़े भगवान शिव को वीणा सुनाने के लिए लेकिन रास्ते में जब वो रुके तो कुछ युवतियों को देखा कि वो बहुत ही कुरुप हैं तब नारदजी ने उनसे पूछा कि आप सब का रुप ऐसा क्यों है तब युवतियों ने बताया कि नारद जब अपनी वीणा की तान छेड़ते हैं, तो उसके दुष्प्रभाव से हम सब कुरुप हो गये हैं.ये सुनकर नारद जी अत्यंत दुखी हुए और एक शीला पर बैठकर भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गए.नारद जी के तपस्या से खुश होकर भगवान शिव रुद्र रुप धारण करके वीणा बजाते हुए इसी जगह पर प्रकट हुए और नारद जी को वीणा वादन की शिक्षा दी.इसलिए इस स्थान का नाम रुद्रप्रयाग पड़ा.भगवान शिव के रुद्र रूप को समर्पित एक मंदिर भी है जो अलकनंदा और मंदाकिनी के संगम पर स्थित है,जिसे रुद्रनाथ मंदिर कहा जाता है.अलकनन्दा नदी वहाँ से बहती हुई आगे की ओर बढ़ती है.
देवप्रयाग - भागीरथी जो गोमुख से निकलकर भिलंगना की धारा को सम्मिलित करते हुए आगे बढ़ती है.भिलंगना नदी टिहरी गढ़वाल में घुत्तू के उत्तर में खल्लिंग हिमशीखर से निकलती है जहां दोनों नदियों का मिलन होता है वहीं देश का सबसे बड़ा बांध टिहरी बांध बनाया गया है.भगीरथी भिलंगना को अपने साथ लेकर देवप्रयाग की तरफ बढ़ती है.देवप्रयाग उत्तराखंड के पांचों प्रयागों में सबसे अहम है.मान्यता है कि पहली बार गंगा यहीं पर प्रकट हुई थी जिनके दर्शन के लिए 33 करोड़ देवी-देवता भी देवप्रयाग आए थे.यहां 1500 फीट पर शांत, सौम्य अलकनंदा से कौलाहल के साथ बहने वाली भागीरथी का मिलन होता है। फिर दोनों की सम्मिलित धाराएं एक होकर गंगा के रुप में प्रवाह होती है, पौराणिक मान्यता के अनुसार यही वो स्थान है जहां देव शर्मा नाम के मुनि ने हजारों साल तक कठिन तपस्या की थी,जिसके बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट होकर दर्शन दिए और तीनों लोकों में इस स्थान की ख्याति फैलने का वरदान दिया . ये वही स्थान है जहां अयोध्या के राजा दशरथ ने भी कठिन तपस्या की थी.मान्यता ये भी है कि लंका विजय के बाद भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और सीता के संग यहां पधारे थे.इस प्रकार 200 कि.मी. का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती हैं.इसके आगे गंगा के सफर में और भी कई नदियां हैं,जो गंगा की धारा में अपनी धारा को सम्मिलित कर आगे बढ़ती हैं, उन सभी नदियों के बारे में बतायेंगे अगले ब्लॉग में...धन्यवाद