कुछ दिन पहले ही भारत ने 73वें संविधान संशोधन की वर्षगांठ मनाई है, जो पंचायती राज व्यवस्था के बारे में बात करती है। देश में लागू पंचायती राज व्यवस्था जहां एक ओर उल्लेखनीय सफलता है तो वहीं दूसरी ओर चौंका देने वाली विफलता भी। यदि हम पंचायती राज व्यवस्था के लक्ष्य प्राप्ति की बात करें तो यह बहुत ही निराशाजनक है। वैसे तो इस व्यवस्था को इसलिए विकसित किया गया था ताकि लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया जा सके और सत्ता का विकेंद्रीकरण कर स्थानीय स्वाशासन को वो शक्ति दी जाए जिससे स्थानीय स्वशासन का लक्ष्य जमीनी स्तर पर दिखाई दे और स्थानीय स्वशासन का राजनीतिक प्रतिनिधित्व एक बेहतरीन उदाहरण पेश कर सके । स्थानीय स्वशासन के माध्यम से पंचायत अपने कल का निर्माण खुद करे क्योंकि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दे स्थानीय लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता। 73वें संविधान संशोधन के तुरंत बाद प्रत्येक राज्य सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं को विकसित करने की प्रक्रिया शुरू की। राज्य चुनाव आयोग को स्थानीय प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। पंचायती राज व्यवस्था में महिला और वंचित वर्गों को शामिल कर इस व्यवस्था को सशक्त बनाने की कोशिश भी की गई। वहीं स्थानीय सरकारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने से महिला अपराधों की रिपोर्ट दर्ज की जाती है जिससे अपराधों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा इस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि महिला नेताओं द्वारा महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की अधिक संभावना होती है। आर. चट्टोपाध्याय और ई. डुफ्लो बताते हैं कि महिला सरपंचों/प्रधानों वाले जिलों में पीने के पानी में अधिक निवेश किया जाता है। लेकिन दुर्भाग की बात यह है कि महिला और वंचितों के प्रतिनिधित्व को छोड़कर अन्य सभी विषय हाशिये पर रहे। 1993 से पहले भारत में सरकार द्विस्तरीय व्यवस्था के तहत कार्य करती थी लेकिन 73वें संविधान संशोधन ने पूरे भारत में स्थानीय शासी निकायों की शुरुआत की। इसने केवल स्थानीय स्वशासी निकायों के निर्माण को अनिवार्य किया और राज्य विधानसभाओं पर स्थानीय मामले में शक्तियां, कार्य और वित्त सौंपने का निर्णय छोड़ दिया और यही व्यवस्था पंचायती राज संस्थाओं की विफलता का कारण बनी। 73वें संविधान संशोधन की पहली विफलता यह थी कि शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और पानी जैसे विभिन्न जनहित कार्यों के हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं किया गया बल्कि इसमें ऐसे कार्यों को जोड़ दिया गया जिन्हें स्थानांतरित किया जा सकता था और इन कार्यों को स्थानांतरित करने का विषय राज्य विधायिका पर छोड़ दिया। पंचायती राज संस्थाएं तब तक शासन नहीं कर सकतीं जब तक कि उन्हें वास्तव में शासन से संबंधित कार्यों को करने का अधिकार नहीं दिया जाता। राजस्व सृजन का दूसरा तरीका सरकारी हस्तांतरण है, जहां राज्य सरकारें अपने राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित करती हैं। संविधान संशोधन ने राज्य और स्थानीय सरकारों के बीच राजस्व हिस्सेदारी की सिफारिश के लिए राज्य वित्त आयोगों का प्रावधान किया है। हालांकि, ये केवल सिफारिशें हैं और राज्य सरकारें इसके लिए बाध्य नहीं हैं। यही वजह है कि स्थानीय शासन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पा रही है। हालांकि वित्त आयोगों ने हर स्तर पर धन के अधिक से अधिक हस्तांतरण की वकालत की है। लेकिन राज्यों द्वारा धन हस्तांतरित करने के लिए बहुत कम कार्रवाई की गई है। नतीजतन पंचायती राज संस्थाओं के पास धन की इतनी कमी है कि वे अक्सर पेरोल दायित्वों को भी पूरा करने में असमर्थ होते हैं और अक्सर सबसे बुनियादी स्थानीय शासन की जरूरतों को भी हल करने में असमर्थ होते हैं।वे उन परियोजनाओं को लेने से हिचकते हैं जिनके लिए किसी भी वित्तीय परिव्यय की आवश्यकता होती है। इस समस्या का एकमात्र और दीर्घकालिक समाधान वास्तविक वित्तीय संघवाद को बढ़ावा देना है जहां स्थानीय निकाय अपने स्वयं के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा जुटाते हैं और कठिन बजट बाधाओं का सामना करते हैं। यानी राजकोषीय स्वायत्तता के साथ-साथ वित्तीय जिम्मेदारी भी संस्था को मिलती है। अब जबकि लाखों निर्वाचित प्रतिनिधि जमीनी स्तर पर भारतीयों को आवाज दे रहे हैं इन प्रतिनिधियों को स्थानीय कार्यों एवं बेहतर स्थानीय शासन को बढ़ावा देने के लिए अपने स्वयं के राजस्व को जुटाने की आवश्यकता है। कार्यों और वित्त के बिना पंचायती राज संस्था की व्यवस्था एक विफलता भर होगी।