देश में कई ऐसे किसान हैं जिनके पास न तो खेती योग्य अधिक भूमि है और न ही उनके पास आय का कोई दूसरा स्रोत है। ऐसे सीमांत किसानों को कम लगत में अधिक मुनाफा देनी वाली दलहनी फसल अरहर की खेती आधुनिक तरीके से करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के साथ ही साथ फसल की अधिक पैदावार करके अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। ICAR पूसा नई दिल्ली के कृषि वैज्ञानिक दलहनी फसलों में अरहर की खेती करने के लिए किसानों को जागरूक कर रहे हैं।
देश में अरहर को अरहर, तुर, रेड ग्राम, और पिजन पी के नाम से भी जाना जाता है।देश में दालों की मांग सबसे अधिक है और सभी दालों में लोकप्रियता के मामले में अरहर पहले स्थान पर है।देश में इसकी खपत सबसे ज्यादा है।वहीं सेहत के लिहाज से भी देखा जाए, तो अरहर का कोई मुकाबला नहीं है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक अरहर की खेती से न केवल आपको सीधे तौर पर मुनाफा होगा, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से भी काफी फायदे होंगे। अरहर से प्रोटीनयुक्त दाल के साथ सब्जी के लिए हरी फलियां, पशुओं के लिए खली, पशुओं के लिए चारा, इसकी सूखी लकड़ियों का उपयोग मकान की छत, छप्पर, टोकरी और ईंधन के रूप में किया जाता है इसके अलावा अरहर के पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकने का काम भी करते हैं।
अरहर दाल के सेवन से हमारे शरीर में अनेक पोषक तत्वों की कमी दूर होती है। दरअसल अरहर दाल में फोलिक एसिड, आयरन, प्रोटीन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस और पोटैशियम पाया जाता है। साथ ही इसमें जिंक, कॉपर, सिलेनियम और मैगनीज जैसे तत्व भी पाए जाते हैं, जिसकी मदद से शरीर का पाचन तंत्र सही रहता है। साथ ही इसमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है। जिसकी मदद से आप अपना वजन कम कर सकते हैं। इसके अलावा हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज को भी कंट्रोल करने में मदद मिलती है। इसलिए अरहर की दाल का सेवन रोजाना करना बहुत जरुरी है।
अरहर की खेती से मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है। दरअसल दलहनी फसलों की जड़ों में पाये जाने वाले लाभदायक बैक्टीरिया वायुमंडल से नाइट्रोजन को खींचकर न सिर्फ अपना पोषण करते हैं बल्कि मिट्टी में भी नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ा देते हैं। अरहर की खेती 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा देती है।
आपको बता दें देश में अरहर की खेती के लिए तीन तरीके प्रचलित हैं। अगेती अरहर, मध्यम अवधि वाली अरहर और दीर्घकालिक अरहर। अगेती और मध्यम अवधि वाली अरहर की प्रजातियां मध्य और दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित हैं। इस श्रेणी की प्रजातियों की फसल 160 से लेकर 200 दिन में पककर तैयार होती है।जबकि दीर्घकालिक प्रजातियां 250 से 270 दिनों में पकती हैं। पूर्वी और मध्य भारत में इसकी खेती ज्यादा प्रचलित है। इसकी खेती के लिए 600 से 650 मिली मीटर वर्षा स्तर वाली जमीन बेहतर मानी जाती है। अरहर की बुआई के लिए 25 से 33 सेल्सियस तापमान बेहतर होता है तो कटाई के लिए 35 से 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान अच्छा रहता है।
अरहर की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है। हालांकि, लवणीय और क्षारीय मिट्टी में इसकी खेती करना संभव नहीं है। इसलिए अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ दोमट और बलुई दोमट मिट्टी अरहर की खेती के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। और मिट्टी का पीएच मान 5 से 8 के मध्य उत्पादन के लिए अच्छा माना जाता है। वहीं इसकी खेती के लिए जल निकास की पर्याप्त सुविधा होना चाहिए और ढालदार खेत सबसे अच्छा माना गया है। खेत की तैयारी के लिए दो तीन जुताई करके पाटा चलाकर मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए। अंतिम जुताई के समय 5 टन गोबर की सड़ी खाद खेत में समान रूप से मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसी समय खेत में जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित कर लेना लाभदायक रहता है। वहीं इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि अरहर के खेत में पानी का ठहराव न हो, क्योंकि ज़्यादा पानी की वजह से अरहर के पौधों में अनावश्यक वृद्धि होने साथ उपज के कम होने की आशंका रहती है। साथ ही फसल पर कई बीमारियों और कीटों का हमला बढ़ने का खतरा बना रहता है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक अरहर की खेती बरसात शुरू के साथ ही जून के अन्तिम सप्ताह या जुलाई के पहले सप्ताह में करना चाहिए। वहीं सिंचाई वाले क्षेत्रों में 15 जून से 5 जुलाई तक इसकी बुआई कर देना चाहिए। क्योंकि देरी से बुआई करने पर उपज में भारी कमी होने की संभावना ज्यादा रहती है। दरअसल फसल पकने के समय तापमान कम होने के चलते इसकी फलियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है। भारी मानसून की दशा में कभी-कभार जून-जुलाई में अरहर की बोआई संभव नहीं हो पाती। इन परिस्थितियों में सिंचाई सुविधा होने पर अरहर की बुआई सिंतबर माह में की जाती है। जबकि अरहर की बुआई फरवरी से अप्रैल यानी बसंत ऋतु तक की जा सकती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जून-जुलाई में बोई गई अरहर की अपेक्षा बसंत में बोई गई फसल से 25 फीसदी तक अधिक उपज प्राप्त होती है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक देशभर के उत्तरी क्षेत्रों के लिए बीज की अनेक किस्में हैं और इनके बीजों का चयन क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूप करना चाहिए। इन सभी किस्मों के बीजों से औसतन फसल की उपज 20 से 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो पाती है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक अरहर की किस्मों को दो वर्गों में बांटा गया है। देर से पकने वाली किस्में अरहर वर्ग में आती है जिनके पौधे ऊंचे बढ़ने वाले होते हैं। इनमे दिसम्बर से फरवरी तक फूल आते हैं। जबकि शीघ्र पकने वाली किस्में तुअर वर्ग में आती हैं। जिनके पौधे छोटे होते है और इनमें सितंबर से नवंबर तक फूल आ जाते हैं। भूमि का प्रकार, बुआई का समय तथा साधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखकर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज, प्रतिष्ठित संस्थानों से खरीदना चाहिए तथा अंकुरण परीक्षण कर बुआई करनी चाहिए।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक राज्यों के लिए उपयुक्त अरहर की उन्नत किस्मों में उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के लिए प्रभात, उपास-120, पंत ए-3, मानक, आईसीपीएल-87, एएल-15, आईसीपीएल-84032, पारस, पूसा अगेती, टी -21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, पूसा-85, टी-7, टी-17, एनपी (डब्लूआर)-15, पूसा-33 और पूसा-55 हैं जबकि बिहार और झारखंड के लिए प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87, एएल-151, टी-21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, बीआर-183, पूसा अगेती, टी-7, टी-17, आईसीपीएच-8, जेए-3 की किस्में हैं। और मध्य प्रदेश के लिए प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87119, एएल-151, पूसा-74, पूसा-33, टी-21, सागर, मानक, पूसा अगेती, टी-7,टी-17, आईसीपीएच -8, जेए -3 किस्में हैं। जबकि छत्तीसगढ़: टाइप-21, प्रभात, उपास-120, प्रगति, आशा, सी-11, नम्बर-148, बीडीएन.-2, बीएसएमआर-736, लक्ष्मी, के एम -7, बहार, राजीव लोचन हैं। वहीं राजस्थान के लिए प्रभात, उपास-120, टी-21, शारदा, पारस, पूसा अगेती, टी-17, पूसा-33, पूसा-55 किस्में विकसित हैं। और हरियाणा के लिए प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-84031, एएल-15, एच-73-20, एच-73-14, पूसा-74, मानक, पारस, टी-7, टी-17, पूसा-33, पूसा-74 किस्में हैं
वहीं पश्चिम बंगाल के लिए श्वेता और जागृति, आईसीपीएल जबकि पश्चिम बंगाल के मैदानी भागों के लिए आईसीपीएच हाइब्रिड संपूर्ण क्षेत्र में बुवाई के लिए उपयुक्त हैं। वहीं अगेती किस्मों में जून में बोने को पारस, यूपीएस 120, पूसा 992 और टी—21 जुलाई में बोने के लिए बहार, अमर, नरेन्द्र , आजाद, पूसा 9, मालवीय विकास, मालवीय चमत्कार, नरेन्द्र अरहर 2 जैसी अनेक किस्में विकसित हैं। नई अगेती प्रजाति में प्रजाति पंत अरहर-421 को पश्चिमी यूपी, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में बोया जा सकता है। जबकि पूसा अगेती, यू.पी.एस.-120 जागृति, टाईप-21, प्रगति, भानक नरेन्द्र अरहर-1, नरेन्द्र अरहर 2 और शरद किस्में प्रमुख हैं। और देर से बोने वाली किस्में में बहार, पूसा-9, नरेन्द्र अरहर 1, मालवीय चमत्कार, टाईप-7 एवं टाइप-17 प्रमुख किस्में हैं।
अरहर की बुआई 50 सेंटीमीटर की कतार में करनी चाहिए और 25 मीटर के फासले पर ही पौधे को लगाना चाहिए। सीड ड्रिल के माध्यम से इसके बीज को बोया जा सकता है और कम से कम 5 से 10 सेंटीमीटर की गहराई रखी जाती है। वैसे तो सामान्य रूप से छींट विधि से बीज बोये जा सकते हैं। लेकिन अधिक गुणवत्ता वाला उत्पादन चाहते हैं तो उसके लिए कृषि वैज्ञानिकों के सुझाव और आधुनिक तकनीक अपनाना चाहिए।
अरहर की अच्छी उपज लेने के लिए 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन के साथ 40 से 45 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम सल्फर की प्रति हेक्टेयर खेत के लिए आवश्यकता होती है। अरहर की अधिक से अधिक उपज के लिए फास्फोरस युक्त उर्वरकों जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, डाई अमोनियम फास्फेट का प्रयोग करना चाहिए। सिंगिल सुपर फास्फेट प्रति हेक्टेयर 250 किलोग्राम या 100 किलोग्राम डाई अमोनियम फास्फेट के साथ 20 किलोग्राम सल्फर पंक्तियों में बुवाई के समय चोंगा या नाई सहायता से देना चाहिए। जिससे कि उर्वरक का बीज के साथ सम्पर्क न हो पाये। आपको बता दें अरहर की उन्नतशील किस्मों से 15 से 25 कुंतल अरहर, 50-60 कुंतल लकड़ी और 10 से 15 कुंतल भूसा प्राप्त होता है।
अरहर की फसल में खरपतवार का नियंत्रण जरुरी होता है। ऐसे में जरूरी है कि खरपतवार नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाये। खरपतवार नियंत्रण के लिए पैंडीमैथालीन नियंत्रक को 2 लीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 150-200 लीटर पानी में डालकर बिजाई से 2 दिन बाद छिड़काव करें। इसके अलावा बिजाई के 3 सप्ताह बाद पहली और 6 सप्ताह बाद दूसरी गुढ़ाई जरूर कर लेनी चाहिए, वहीं अगर सिंचाई की बात करें तो बिजाई के 3 से 4 सप्ताह बाद पहली सिंचाई की जाती है और इसके बाद बारिश के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए। ध्यान रहे कि ज्यादा पानी देने से फसल झुलस सकती है।
80 फीसदी फलियों के पकने के बाद हसिए या गड़ासे की मदद से जमीन की सतह से कटाई करनी चाहिए। कटाई के बाद अरहर के पौधों का बंडल बनाकर कुछ दिन खलिहान में सूखने के लिए रख देना चाहिए, ताकि डण्डे से पीटकर या थ्रेसर की सहायता से दानों को बंडल से अलग कर लिया जाए। खरीफ की फसल से 20 से 30 क्विंटल और अगेती किस्मों से 15 से 16 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। इसके भंडारण के लिए नमी 10-11 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। भंडारण में कीटों से सुरक्षा के लिए एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करें। आपको बता दें उत्पादकता और पैदावार के लिहाज से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखण्ड, तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश के राज्यों में बड़े पैमाने पर अरहर की खेती की जाती है।
देश के लगभग हर क्षेत्र में दाल और दाल से बनने वाले पदार्थों की डिमांड रहती है। अरहर की दाल घर से लेकर होटल, ढाबों तक हर जगह पसंद की जाती है। इतना ही नहीं दलहनी फसलें न सिर्फ इंसान और पशुओं के पोषण के लिए बेहद जरूरी हैं, बल्कि ये मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाती हैं। जिसके चलते आगामी फसलों का उत्पादन भी बेहतर होता है। बता दें आधुनिक खेती और किसान कृषि वैज्ञानिकों की सलाह पर नये-नये प्रयोग कर खेतीबाड़ी में अच्छा मुनाफा कमा कर अपने सपनों को साकार कर रहे हैं।