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बायोचार तकनीक से करें फसल अवशेष यानि पराली का समाधान

देश में वायु प्रदूषण की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और इसका जिम्मेदार किसानों को भी माना जा रहा है। दरअसल किसानों के सिर पर फसल अवशेष यानि पराली जलाने की वजह से वायु प्रदूषण बढ़ाने का दोष मढ़ा जाता है। हालांकि सच तो ये है कि किसान जानकारी के अभाव में ऐसा करते हैं। यदि किसानों को पराली के दूसरे इस्तेमाल और इससे कैसे अच्छा पैसा कमा सकते हैं यदि इस बारे में बताया जाए तो शायद पराली वो कभी न जलाएं। और ऐसी ही तकनीक है बायोचार तकनीक जो पराली को जैविक उर्वरक में बदल देती है। कृषि वैज्ञानिकों ने पराली का समाधान निकाल लिया है। ये किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित होगा। इससे किसानों को खेत में पराली जलाने से छुटकारा मिल सकता है।

आपको बता दें देश में जब भी पराली जलाई जाती है तो बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड पैदा होती है। जिससे स्किन और श्वांस संबधी रोग होता है। वहीं एक टन धान के अवशेषों को जलाने से आपके खेतों की मिट्टी से 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फॉस्फोरस, 25 किलोग्राम पोटाश, 1.2 किलोग्राम गन्धक और 400 किलोग्राम कार्बनिक पदार्थों की हानि होती है। और तो और किसान खेतों के ऊपजाऊपन से भी खिलवाड़ करते हैं। इसी कड़ी में कृषि वैज्ञानिकों ने सीमैप की एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिसे अपनाकर किसान पराली जलाने की समस्या से बच सकते हैं और उन्हें बायोचार के रूप में बेहतर उर्वरक भी मिल जाएगा।

असल में बायोचार तकनीक है क्या

बायोचार शब्द दो शब्दों बायो फर्टिलाइजर और चारकोल से मिलकर बना है। बायो फर्टिलाइजर का मतलब ऐसे सूक्ष्म जीवों से है जो पौधों को प्राकृतिक रूप से पोषक तत्व प्रदान कराते हैं और चारकोल का अर्थ लकड़ी का कोयला से है। बायोचार उच्च कार्बन युक्त ठोस पदार्थ होता है, और ये उच्च तापमान पर तैयार किया जाता है, जिसमें ऑक्सीजन अनुपस्थित या कम मात्रा में होती है। आसान भाषा में कहें तो बायोचार अवशिष्ट पदार्थों की पायरोलिसिस प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है और ये तरीका बहुत ही सरल और ये एक उभरती हुई तकनीक है जो कि आधुनिक कृषि उत्पादन बढ़ाने और पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में काफी सहायक साबित हो रही है। वहीं कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक ये कोई नई तकनीक नहीं है। विदेशों में इसका उपयोग बहुत पहले से किया जा रहा है। लेकिन इसमें बड़ी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है जिससे ये आम किसानों की पहुंच से बहुत दूर है।

कैसे तैयार किया जाता है बायोचार

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक इस तकनीक में फसल के अवशेषों को लोहे के एक बड़े ड्रम में रखकर बंद कर एक घंटे तक गर्म करते हैं। इस ड्रम में ऊपर की ओर छोटे-छोटे छेद कर दें ताकि ड्रम को गर्म करते समय अंदर की गैस बाहर निकल सके नहीं तो ड्रम में विस्फोट होने का खतरा रहता है और ठंडा होने के बाद इसमें से बायोचार को निकालते हैं और खेत में मिला देते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक बायोचार का पीएच मान 7.5 से 10 तक, कार्बन 40 से 90 प्रतिशत तक, पोटेशियम 1000 से 2000 पीपीएम, फास्फोरस 700 से 3000 पीपीएम, नाइट्रोजन 1 से 5 प्रतिशत और पानी को रोकने की क्षमता 40 से 75 फीसदी तक होती है। जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और कम लागत में फसल की बंपर पैदावार होती है।

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक किसान गेहूं के फसल अवशेष से छुटकारा पाने के लिए हैलो सीआरडी स्प्रे का इस्तेमाल कर सकते हैं और इसको सीएसआरआई लखनऊ के कृषि वैज्ञानिकों ने एक बैक्टरिया के माध्यम से तैयार किया है। इसके इस्तेमाल करने से पहले कुछ बातों का ध्यान खना जरूरी है। जैसे कि खेतों में नमी होनी चाहिए। इसके लिए पहले खेत में सिंचाई कर लें और उसके बाद ही इस स्प्रे का छिड़काव करें।

आपको बता दें देश में सालाना लगभग 630 से 635 मिट्रिक टन फसल अवशेष पैदा होता है। कुल फसल अवशेष का 58 फीसदी धान से, 17 प्रतिशत गन्ने से, 20 प्रतिशत रेशा वाली फसलों से तथा 5 प्रतिशत तिलहनी फसलों से प्राप्त होता है। सर्वाधिक फसल अवशेष जलाने की रिपोर्ट पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आ रही हैं और बदस्तुर जारी हैं। फसल अवशेष प्रबन्धन की विधियों की जानकारी न होने व होते हुए भी किसान अनभिज्ञ बने हुए हैं। वहीं देश के विकसित राज्यों में आज भी मात्र 10 फीसदी किसान ही अवशेषों का प्रबन्धन कर रहे हैं। ऐसे में देश में रासायनिक खाद के प्रयोग से खेतों की उर्वरा शक्ति दिन पर दिन घटती जा रही है। बायोचार उत्पादन इकाई में तैयार हरित उर्वरक के प्रयोग से फसल की उपज काफी बेहतर होगी। और तो और ऐसे में मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है और इससे उपजने वाली साग-सब्जी, गेहूं, धान, चना, आदि खाने में काफी स्वादिष्ट होते हैं साथ ही मुनाफा भी ज्यादा होता है।