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चोल साम्राज्य के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था

चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की थी जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई . में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 ई . तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव , इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए। पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई . में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

स्थानीय स्वशासन -

चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषता उसका स्थानीय स्वशासन था। ग्राम स्वशासन की पूर्ण इकाई थे और ग्राम का प्रशासन ग्रामवासी स्वयं करते थे। चोल शासकों के अभिलेखों से इस व्यवस्था पर विस्तृत जानकारी मिलती है।

सभा या ग्राम सभा -

यह मूलतः अग्रहारों व ब्राह्मणों की एक संस्था थी। इसके सदस्यों को ‘ पेरुमक्कल ’ कहा जाता था। अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्राम को 30 भागों में विभाजित किया दिया जाता था। और निश्चित योग्यता रखने वाले एक व्यक्ति को चुना जाता था। चुने गए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यता आवश्यक थी -

  1. वह उस ग्राम का निवासी हो।
  2. उसकी आयु 35 और 70 वर्ष के बीच हो।
  3. एक - चैथाई वेलि ( लगभग डेढ़ एकड़ ) से अधिक भूमि का स्वामी हो।
  4. अपनी ही भूमि पर बनाये मकान में रहता हो।
  5. वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्यक ज्ञान हो।
वहीं निम्नलिखित बातें सदस्यता के अयोग्य घोषित करती थीं -
  • जो पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य रहा हो।

  • जिसने सदस्य के रूप में आय - व्यय का लेखा-जोखा अपने विभाग को न दिया हो।

  • भयंकर अपराधों में अपराधी घोषित हो।

इस प्रकार की योग्यता रखने वाले 30 भागों में से प्रत्येक में एक व्यक्ति को घड़े में से निकाले हुए पर्चे के आधार पर चुन लिया जाता था। नाम के ये पर्चे किसी बालक द्वारा निकलवा लिए जाते थे। इन सदस्यों का कार्यकाल 1 वर्ष था। इन सदस्यों में 12 स्थायी समिति के , 12 उपवन समिति के और 7 तालाब समिति के लिए चुने जाते थे। समिति को वारियम कहते थे और यह ग्राम सभा के कार्यों का संचालन करती थी। ग्राम सभा के कार्यों के लिए कई समितियां होती थीं। महासभा को ‘ पूरुगर्रि ’ , इसके सदस्यों को ‘ पेरुमक्कल ‘ एवं समिति के सदस्यों को ‘ वारियप्पेरुमक्कल ’ कहा जाता था। व्यापारियों की सभा को ‘ नगरम ’ कहा जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे , जैसे - मणिग्राम , वलंजीयर आदि। चोल काल के ‘ उर ’ का रूप लघुगणतंत्र जैसा था। इस समय सार्वजनिक भूमि महासभा के अधिकार क्षेत्र में होती थी। महासभा ग्रामवासियों पर कर लगाने , उसे वसूलने एवं बेगार लेने का भी अधिकार अपने पास रखती थी। सभा या महासभा वर्ष में एक बार केन्द्रीय सरकार को कर देती थी। महासभा की आय और व्यय का निरीक्षण केन्द्र सरकार के अधिकारी किया करते थे। केन्द्र सरकार असामान्य स्थितियों में ही ग्रामसभा के स्वायत्त शासन में हस्तक्षेप करती थी।

ग्राम सभा के अनेक कार्य थे। यह भूमिकर एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थी। तालाबों और सिंचाई के साधनों का प्रबन्ध करती थी। ग्राम के मन्दिरों और सार्वजनिक स्थानों की देखभाल , ग्रामवासियों के मुकदमों का फैसला करना , ग्राम की सड़कों को बनवाना , ग्राम में औषधालय खोलना , ग्राम के बाजारों और पेठों का प्रबन्ध करना , इत्यादि ग्राम सभा के कार्य थे।

व्यापारियों से संबंधित हितों की देखभाल हेतु - मणिग्रामम , वलंजियार, नानादेशी जैसे समूह थे। धार्मिक हित समूहों में मूलपेरूदियार था। यह मंदिरों की व्यवस्था की निगरानी करता था। संपूर्ण साम्राज्य मंडलों ( प्रान्तों ) में बंटा हुआ था। प्रान्तों का विभाजन वलनाडु या नाडु में होता था। उसके नीचे गांव का समूह कुर्रम या कोट्टम कहलाता था। सबसे नीचे गांव था। ग्राम की स्थिति पट्टे के अनुसार भिन्न प्रकार की होती थी। गांवों की तीन श्रेणियां थीं - ऐसे ग्राम सबसे ज्यादा होते थे जिनमें अंतर्जातीय आबादी होती थी एवं जो भू - राजस्व थे। सबसे कम संख्या में ऐसे ग्राम होते थे जो ब्रह्मदेय कहलाते थे एवं इनमें पूरा ग्राम या ग्राम की भूमि किसी एक ब्राह्मण समूह को दी गई होती थी। ब्रह्मदेय से संबंधित अग्रहार अनुदान होता था जिसमें ग्राम ब्राह्मण बस्ती होती थी एवं भूमि अनुदान में दी गई होती थी। ये भी कर मुक्त थे , किन्तु ब्राह्मण अपनी इच्छा से निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर सकते थे।